Sunday, February 14, 2016

A Poem by Vineet Chauhan

A Poem by a Soldier...

सबसे पहले माँ के लिए लिखता है... 
माँ तुम्हारा लाडला रण में अभी घायल हुआ है, पर देख उसकी वीरता को शत्रु भी कायल हुआ है;
रक्त की होली रचाये मै प्रलयंकर दिख रहा हूँ, माँ उसी शोणित से तुमको पत्र अंतिम लिख रहा हुँ;
यद्ध था भीषण मगर न इंच भर पीछे हटा हूँ, माँ तुम्हारी ही शपथ मै आज इंचों  में कटा हूँ;
एक गोली वक्ष पर कुछ देर पहले ही लगी है, माँ कसम जो दी थी तुमने आज मैंने पूर्ण की है;
तो छा रहा है सामने लो आँख के आगे अँधेरा , पर उसी में दिख रहा है माँ मुझे नूतन सवेरा;
कह रहे हैं शत्रु भी की जिस तरह मै शैदा हुआ हूँ, लग रहा है सिंघनी की कोख से पैदा हुआ हूँ ;
तो ये ना समझो माँ की चिर नींद लेने जा रहा हूँ, मैं तुम्हारी कोख से फिर जन्म लेने आ रहा हूँ;

फिर पिता को लिखता है... 
मैं तुम्हे बचपन में ही पहले बहुत दुःख दे चूका हूँ, और कन्धों पर खड़े हो आसमान सर ले चुका हूँ;
तुम सदा कहते न थे ये ऋण तुझे भरना पड़ेगा, एक दिन कन्धों पर मुझको ले तुझे चलना पड़ेगा;
पर पिता मैं भार अपना तनिक हल्का कर ना पाया, तुम मुझे करना क्षमा मैं पितृ ऋण को भर न पाया;
ओ पिता ये प्रश्न मुझको आज तक भी खा रहा है, आज भी यह सूत तुम्हारे कन्धों पर ही जा रहा है;

उसके बाद भाई को लिखता है...
सुन अनुज रणवीर गोली बांह में जब आ समाई, ओ मेरी बायीं भुजा उस वक़्त तेरी याद आयी;
मैं तुझे बाँहों से अब आकाश दे सकता नहीं हूँ, लौट कर भी आऊंगा विश्वास दे सकता नहीं हूँ;
पर अनुज विश्वास रखना मैं नहीं थक कर पडूंगा, तुम भरोसा पूर्ण रखना सांस अंतिम तक लड़ूंगा;
अब तुम्हीको सौपता हूँ बस बहिन का ध्यान रखना, जब पडे उसको जरुरत वक़्त पर सम्मान करना;
तुम उसे कहना की रक्षापर्व  जब भी आएगा, भाई अम्बर में नजर आशीष देता आएगा;

अंत में पत्नी से कहता है... 
अंत में तुमसे प्रिये एमी आज भी कुछ मांगता हूँ, है कठिन देना मगर निष्ठुर हृदय हो मांगता हूँ;
कि तुम अमर सौभाग्य की बिंदिया सदा माथे सजाना, हाथ में चूड़ी पहन कर पाँव  में मेहंदी सजाना;
तुम नहीं वैधव्य की प्रतिमूर्तियों की साधिका हो, तुम अमर बलिदान की पुस्तक की पहली भूमिका हो;
जानता हूँ बालकों के प्रश्न कुछ सुलझे ना होंगे, सैकड़ों प्रश्न होंगे जिनमे वो उलझे तो होंगे;
पूछते होंगे की पापा हैं कहा कब आएंगे, और हमको साथ ले कर घूमने कब जायेंगे;
पापा हमको छोड़ कर जाने कहा बैठे हुए हैं, क्या उन्हें मालूम है कि उनसे हम रूठे हुए हैं;
तो तुम उन्हें समझाना कि जिद पे अड़ जाते नहीं हैं, ज्यादा जिद करते हैं उनके पापा घर आते नहीं हैं;
सप्तपद की यात्रा से तुम मेरी अर्धांगिनी हो, सात जन्मों तक बाजोगी तुम अमर विरहाग्नि हो;
इसलिए अधिकार तुमसे बिन बताये ले रहा हूँ, मांग का सिंदूर तेरा मातृभूमि को दे रहा हूँ..।

Thank you Vineet Chauhan, you made me cry with this poem...